लाल-नीले पानी से भरी प्लास्टिक की बोतलें, जो अक्सर घरों के दरवाजों या दीवारों पर टंगी होती हैं, एक अजीबोगरीब परंपरा बन चुकी हैं। लोगों का मानना है कि ये बोतलें आवारा कुत्तों को घर के आसपास आने से रोकती हैं। इस लेख में हम इस प्रथा के पीछे के कारण, विज्ञान और वास्तविकता की पड़ताल करेंगे।
लोगों का विश्वास और प्रथा
कई लोग मानते हैं कि जब कुत्ते इन रंगीन बोतलों को देखते हैं, तो वे डर जाते हैं और उस स्थान को छोड़ देते हैं। यह धारणा मुख्य रूप से उन लोगों के बीच फैली है जो आवारा कुत्तों की समस्या से परेशान हैं। विशेषकर शहरी क्षेत्रों में, जहां कुत्ते अक्सर गंदगी फैलाते हैं, लोग इस उपाय को अपनाते हैं।
विशेषज्ञों का कहना है कि यह एक प्रकार का *टोटका* है, जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। उदाहरण के लिए, कई लोग अपने घरों के बाहर लाल या नीले रंग की बोतलें टांगते हैं, यह सोचकर कि इससे कुत्ते दूर रहेंगे।
क्या विज्ञान कहता है?
विज्ञान की दृष्टि से देखा जाए तो कुत्ते कलर ब्लाइंड होते हैं, अर्थात् वे रंगों में भेद नहीं कर पाते। इटली की यूनिवर्सिटी ऑफ बारी के वैज्ञानिकों ने यह पाया है कि कुत्ते नीले और पीले रंग को देख सकते हैं, लेकिन लाल रंग उनके लिए अस्पष्ट होता है. इसका मतलब यह है कि कुत्ते इन रंगीन बोतलों को देखकर डरने वाले नहीं होते।
अनुसंधान और प्रयोग
कुछ अनुसंधानकर्ताओं ने इस विषय पर प्रयोग किए। उन्होंने विभिन्न रंगों की बोतलों को रखा और देखा कि कुत्ते इन रंगों के प्रति क्या प्रतिक्रिया देते हैं। प्रयोग में पाया गया कि कुत्ते इन रंगीन बोतलों के पास बैठते रहे और उन्हें देखकर कोई डर नहीं दिखाते.
यह भी देखा गया कि जब कुत्तों को विभिन्न रंग की हड्डियाँ खिलाई गईं, तो उन्होंने बिना किसी भेदभाव के सभी हड्डियों को खा लिया। इससे स्पष्ट होता है कि कुत्तों का व्यवहार इन रंगों से प्रभावित नहीं होता।
क्यों फिर भी लोग इसे अपनाते हैं?
इसका मुख्य कारण यह हो सकता है कि लोगों को यह उपाय सरल और प्रभावी लगता है। जब वे देखते हैं कि उनके आस-पास के अन्य लोग भी इस प्रथा का पालन कर रहे हैं, तो वे भी इसे अपनाने लगते हैं। इसके अलावा, यह एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी हो सकता है—जब लोग किसी चीज़ पर विश्वास करते हैं, तो वे उसे सच मान लेते हैं।
लाल-नीले पानी से भरी प्लास्टिक की बोतलें एक पुरानी प्रथा हैं जिनका वैज्ञानिक आधार कमजोर है। कुत्ते इन रंगों से डरते नहीं हैं और न ही ये बोतलें उनके व्यवहार को प्रभावित करती हैं। फिर भी, यह प्रथा समाज में एक सामान्य धारणा बन चुकी है।